आचार्य श्रीराम शर्मा >> अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रहश्रीराम शर्मा आचार्य
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जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह
(द)
दंभ दिखावत धर्म कौ, यह अधीन मति अंध।
पराधीन अरु धमे को, कही कहा संबंध॥
दंभ तो लखा तिहूँ लोक में, तू क्यों कहे अलेख।
सारशब्द जाना नहीं, धोखे पहिरा भेख॥
दरबार में सच्चे सद्गुरु के,दुःख दर्द मिटाये जाते हैं।
दुनिया के सताये लोग यहाँ, सीने से लगाये जाते हैं।।
दर्पण केरी गुफा में, स्वनहा पैठा धाय।
देखी प्रतिमा आपनी, भंकि भंकि मरि जाय।।
दश द्वारे का पींजरा, तामें पन्छी पौन।
रहिबे को अचरज अहै, जात अचम्भौ कौन॥
दशा मुझ दीन की गुरुवर,सम्भालोगे तो क्या होगा।
अगर चरणों की सेवा में, लगा लोगे तो क्या होगा॥
दसों दिशाओं में युग - युग से गूंज रही जयकार।
गायत्री के महामंत्र की महिमा अपरम्पार।।
दादा भाई बाद कै लेखों, चरणन होइहौं बन्दा।
अककी पुरिया जो निरुवारे, सो जन सदा अनन्दा॥
दिन दस आदर पायके, करिले आपु बखान।
जौलौं काग सराध पख, तौलों तो सनमान॥
दिये पीठि पाछै लगै, सनमुख होत पराय।
तुलसी संपति छाँह ज्यों ,लखि दिन बैठि गँवाय॥
दिल का महरिम कोहू न मिलिया, जो मिलिया सो गर्जी।
कहहिं कबीर असमानहिं फाटा, क्यों कर सीव दर्जी।।
दिव्य अनुदान माँगे बिना ही मिला।
लक्ष्य तक राह सुन्दर सहज बन गई॥
दिव्य आलोक देखा हृदय भर गया।
जिन्दगी ही हमारी नमन बन गई।।
दिव्य आलोक सा प्राण में भर गई।
यह अयाचित तुम्हारी कृपा की किरण।।
दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ।
हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरषि हरषि गुण गाइ॥
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखे न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय॥
दीपक के थाल सजे, अन्तर में ज्योति जले।
दीप यज्ञ घर-घर मनाओ रे।
हाँ भैया जीवन को यज्ञमय बनाओ रे॥
दीप जलाओ झिलमिल दीप जलाओ।
गाँव-गाँव नगर-नगर दीप जलाओ।।
दीप जलाओ पूरब से पावन संदेशा आया।
शान्तिकुञ्ज में नयी उमंगे पर्व वसन्ती आया॥
दीप हूँ जलता रहूँगा, मैं प्रलय की आँधियों से,
अन्त तक लड़ता रहूँगा। दीप हूँ जलता रहूँगा॥
दुख पाये बिन हूँ कहूँ गुन पावत हैं कोई।
सहे बेध बन्धन सुमन, तब गुन संयुत होइ॥
दोहरा तो नौ तन भया, पदहि न चीन्हें कोय।
जिन्ह यह शब्द विवेकिया, छत्र धनी है सोय॥
द्वारे तेरे राम जी, मिलह कबीरा मोहि।
तैं तो सब में मिलि रहा, मैं न मिलूँगा तोहि॥
द्रवित जब उर से हो गया, पर पीर पहिचानी।
तपे स्वार्थ भागीरथ, हिमालय हो गया पानी॥
दुनिया का वैभव न मिले, माँ तेरी पावन धूलि मिले।
सोने से सदभाव उजाड़ा, धरती में हैं फूल खिले॥
दुनियाँ बनी है दोजख, जन्नत इसे बनायें।
बैकुण्ठ स्वर्ग जन्नत, धरती पे हम बुलायें॥
दनियाँ बिगड़ गयी है, हर व्यक्ति रट लगाता।
लेकिन बिगड़ गया क्या, यह तो समझ न आता।।
दुरजन आप समान करि, को राखै हित लागि।
तपत तोय सह जाहि पुनि, पलटि बुतावत आगि॥
दुरजन दरपन सम सदा, करि देखों हिय दौर।
सनमुख की गति और है, पीछे की गति और॥
दुरजन बदन कमान सम, बचन बिमुंचत तीर।
सज्जन उर बेधत नहीं, छमा-सनाह सटरी॥
दुरदिन परे रहीम कहि दुरथल जैये भागि।
ठाढ़े हूजिए घूर पर, जब घर लागत आगि॥
दुष्कर्मों की आँधी छाई, विपरीत आचरण हुआ।
युग-युग की रक्षा करने वाली, युग शक्ति का अवतरण हुआ।।
दूर करेंगे तम अनीति को, ज्योति जगायेंगे।
दीप से दीप जलायेंगे, ज्योति का पर्व मनायेंगे।।
देख खुला है द्वार पुजारी।
पुजारी बैठ गया क्यों फेंक धूल में फूलों का यह हार॥
देख रहे हैं हम सुदूर, उठता प्रकाश-सा।
शायद यह ही नवयुग, का प्रज्ञावतार है॥
दे न पाओ यदि मुझे विश्वास का बल,
तो न दो विश्वासघाती विष मुझे तुम।
चल न पावो साथ में पथ साधना का,
तो अकेला छोड़ दो पथ पर मुझे तुम॥
देनहार कोऊ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन॥
दे प्रभो! वरदान ऐसा, दीजिए वरदान ऐसा।
भूल जाऊँ भेद सब, अपना पराया मान कैसा॥
देव तुम्हारे संग चलने की, हमने कर ली अब तैयारी।
तन मन हम सौंपेंगे अपना, कार्य करेगी शक्ति तुम्हारी॥
देव पुरुष आया तब हमने, हँसकर की अगुआई।
उनका कार्य पूर्ण करके दें, सच्ची उन्हें विदाई॥
देश काल करता करम, बुधि विद्या गति हीन।
ते सुर-तरु तर दारिदी, सुरसरि तीर मलीन॥
देश धर्म जाति का गौरव, हमें बढ़ाना है।
कुम्भकणे जो बने हुए हैं, उन्हें जगाना है।।
दोनों रहिमन एक से, जौं लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं, काक पिक, ऋतु वसंत के माहि॥
दो पहियों के बिना न सधता, जीवन-रथ का भार।
जाता है डगमगा, एक पहिये से तो आधार॥
दो फूल साथ फूले, किस्मत जुदा-जुदा है।
देवों के एक सर पे, एक कब्र में चढ़ा है।।
दो भाइयों को देखो, आपस में हैं हकीकी।
एक शाहे नामवर है, एक फिर रहा गढ़ा है।।
दोष दुर्गुण को जब त्यागा जायेगा।
जीवन यज्ञ तभी पूरा हो पायेगा।।
द्वार सफलता आती है, जब संकल्प किये हों।
बाधा स्वयं टल जाती है, जब संकल्प किये हों।।
दिये पीठि पाछै लगै, सनमुख होत पराय।
तुलसी संपति छाँह ज्यों, लखि दिन बेठि गँवाय॥
दल का महरिम कोहू न मिलिया, जो मिलिया सो गर्जी।
कहहिं कबीर असमानहिं फाटा, क्यों कार सीवै दर्जी॥
दिब्य अनुदान मांगे बिना ही मिला।
लक्ष्य तक राह सुन्दर सहज बन गई॥
दिब्य आलोक देखा हृदय भर गया।
जिन्दगी ही हमारी नमन बन गई।।
दिव्य आलोक सा प्राण में भर गई।
यह अयाचित तुम्हारी कृपा की किरण।।
दिल का महरिम कोइ न मिलिया, जो मिलिया सो गर्जी।
कहहिं कबीर असमानहिं फाटा, क्यों कर सीवै दर्जी॥
दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ।
हरि जैसा है तैसा रहो तू, हरषि हरषि गुण गाइ॥
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखे न कोय।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सभ होय॥
दीपक के थाल सजे, अन्तर में ज्योति जले।
दीप यज्ञ घर-घर मनाओ रे।
हाँ भैया जीवन को यज्ञमय बनाओ रे॥
दीप जलाओ झिलमिल दीप जलाओ।
गाँव-गाँव नगर-नगर दीप जलाओ।।
दीप जलाओ पूरब से, पावन संदेशा आया।
शान्तिकुञ्ज में नयी उमंगे, पर्व बसन्ति आया॥
दीप हूँ जलता रहूँगा, मैं प्रलय की आँधियों से,
अन्त तक लड़ता रहूँगा। दीप हूँ जलता रहूँगा।।
दुख पाये बिन हूँ कहूँ गुन पावत हैं कोइ।
सेह बेध बन्धन सुमन, तब गुन संयुत होइ॥
दोहरा तो नै तन भया, पदहि न चीन्हें कोय।
जिन्ह यह शब्द विवेकिया, छत्र घनी है सोय॥
द्वारे तेरे राम जी, मिलह कबीरा मोहि।
तैं तो सब में मिलि रहा, मैं न मिलूँगा तोहि॥
द्रवित जब उर से हो गया, पर पीर पहिचानी।
तपे स्वार्थ भागीरथ हिमालय, हो गया पानी॥
दुनिया का वैभव न मिले, माँ तेरी पावन धूलि मिले।
सोने से सद्भाव उजाड़ा, धरती में हैं फूल खिले॥
दुनियाँ बनी है दोजख जन्नत इसे बनायें।
बैकुण्ठ स्वर्ग जन्नत, धरती पे हम बुलायें।।
दुनियाँ बिगड़ गयी है हर व्यक्ति रट लगाता।
लेकिन बिगड़ गया क्या यह तो समझ न आता।।
दुरजन आप समान करि को राखै हित लागि।
तपत तोय सह जाहि पुनि, पलटि बुतावत आगि।।
दुरजन दरपन सम सदा, करि देखों हिय दोर।
सनमुख की गति और है, पीछे की गति और॥
दुरजन बदन कमान सब, बचन बिमुंचत तीर।
सज्जन उर बेधत नहीं, छमा-सनाह सटीर॥
पद्य-संग्रह दुरदिन परे हीम कहि दुरथल जेये भांगि।
ठाड़े छूजिए घूर पर, जब ज्ञर लागत आगि॥
दुष्कर्मों की आँधी छाई, विपरीत आचरण हुआ।
युग-युग की रक्षा करने वाली, युग शक्ति का अवतरण हुआ।।
दूर करेंगे तम अनीति को, ज्योति जगायेंगे।
दीप से दीप जलायेंगे, ज्योति का पर्व मनायेंगे।।
देख खुला है द्वार पुजारी।
पुजारी बैठ गया क्यों फेंक धूल में फूलो का यह हार॥
देख रहे हैं हम सुदूर उठता प्रकाश सा।
शायद यह ही नवयुग का प्रज्ञावतार है।।
दे न पाओ यदि मुझे विश्वास का बल,
तो न दो विश्वास घाती विष मुझे तुम।
चल न पावो साथ में पथ साधना का,
तो अकेला छोड़ दो पथ पर मुझे तुम॥
देनहार कोऊ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरें, थाते नीचे नैन॥
दे प्रभो! वरदान ऐसा, दीजिए वरदान ऐसा।
भूल जाऊँ भेद सब, अपना पराया मान कैसा॥
देव तुम्हारे संग चलने की हमने कर ली अब तैयारी।
तन मन हम सौंपेंगे अपना कार्य करेगी शक्ति तुम्हारी॥
देव पुरुष आया तब हमने हंसकर की अगुआई।
उनका कार्य पूर्ण करके दें, सच्ची उन्हें विदाई॥
देश काल करता करम बुद्धि विद्या गति हीन।
ते सुर तरू तर दारिदी, सुरसरि तीन मलीन॥
दश धर्म जाति का गौरव, हमें बढ़ाना है।
कुम्भकर्ण जो बने हुए हैं, उनहें जगाना है।।
देश काल करता करम बचन बिचारी विहीन।
ते सुरुतरू तर दारिदी सुरसरि तीन मलीन॥
दोनों रहिमन एक से जौं लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं, काक पिक ऋतु बसंत के माहि॥
दो पहियों के बिना न सधता, जीवन रथ का भार।
जाता है डगमग एक पहिये से तो आधार॥
दो फूल साथ फूले किस्मत जुदा-जुदा है।
नौरों के एक सर पे एक कब्र में चढ़ा है।।
दो भाईयों को देखो आपस में हैं हकीकी।
एक शाहेनामवर है एक फिर रहा गढ़ा है।।
दोष दुर्गुण को जब ज्यागा जायेगा।
जीवन यज्ञ तभी पूरा हो पायेगा॥
द्वार सफलता आती है, जब संकल्प किये हों।
बाधा स्वयं टल जाती है, जब संकल्प किये हों।।
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